संतोष कुमार झा की कृति:- पुरुष।
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By Admin
Published - 26 May 2025 8 views
*पुरुष!*
ओ पुरुष!
सदियों से है पल रहा तुम्हारा अहम
और तुम्हें हो गया है वहम
कि तुम हो स्वयंभू और श्रेष्ठतम।
प्रजाति स्त्री की
तुमसे है गौण
क्योंकि आदिकाल से
तुम्हारे समक्ष
स्त्री रही है मौन
तुम होगे कदाचित श्रेष्ठ
शारीरिक बल से
किंतु क्या तुलना है
बल की तुम्हारी
स्त्री के धैर्य, विवेक
और मनोबल से
सदियों से ही
होता रहा है पोषित
तुम्हारा छद्म अहम
और तुम करते रहे
बल-पूर्वक
स्त्री का शोषण
किया है तुमने सदैव
स्त्री का उपहास
और दिया है उसको
केवल अपमान, बंधन
और मन का त्रास
तुमने सदैव स्त्री के
शरीर को जीता
किंतु रह गया उसका मन
प्रेम से बिल्कुल अछूता
समझा तुमने सदैव
स्त्री पर एकाधिकार
क्योंकि उसने नहीं किया
भय और लज्जावश
कोई प्रतिकार
क्यों समझते हो स्वयं को श्रेष्ठतम?
क्या तुममें है, स्त्री जैसा
धैर्य, क्षमा, सृजन
या कोमल मन?
भूल गए
तुम हो मात्र एक घटक
स्त्री नहीं है कनिष्ठ तुमसे
बल्कि है बिलकुल समान
और तुम्हारी पूरक
दोनों ही हैं बिलकुल
आधे और अधूरे
दोनों ही है नितांत बराबर
तथा होते हैं सिर्फ़
एक दूसरे से पूरे
यदि चाहते हो होना पुरुष
तो करो स्त्री के
अस्तित्व का सम्मान
जीत लो मन उसका
प्रेम से
करके अपने
अहम का बलिदान।
रचनाकार:-संतोष कुमार झा
सीएमडी कोंकण रेलवे।
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*पुरुष!* ओ पुरुष!सदियों से है पल रहा तुम्हारा अहम और तुम्हें हो गया है वहम कि तुम हो